जंगल, जन और जद्दोजहद: पलामू की महिलाओं की अनकही दास्तान

झारखंड के पलामू ज़िले के मनातू प्रखंड में दिन की पहली किरणें पहुँचने से पहले ही कई आदिवासी महिलाएँ जंगलों से लकड़ी का बोझ सिर पर उठाकर मनातू बाज़ार की ओर निकल पड़ती हैं। लगभग 16 किलोमीटर की यह यात्रा उनके लिए रोज़मर्रा का हिस्सा है — श्रम और जीविका, दोनों का सिलसिला।
ये महिलाएँ गौरवा-जशपुर के जंगलों से सूखी लकड़ी एकत्र करती हैं। पथरीले रास्तों और कड़ी धूप के बीच उनका सफर अक्सर 40 से 50 किलो की लकड़ी के गट्ठर के साथ तय होता है। स्थानीय बाज़ार में इस लकड़ी से प्राप्त कुछ रुपये ही उनके घर का खर्च चलाने का माध्यम बनते हैं। चावल, तेल, नमक, कपड़े या बच्चों के लिए साबुन — यही आय उनकी जरूरतें पूरी करती है।
हालांकि देश की आज़ादी को दशकों बीत चुके हैं, पर इन महिलाओं के जीवन में सरकारी योजनाओं की कोई ठोस उपस्थिति नहीं दिखती। सड़क, शिक्षा, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं से दूर, उनका जीवन अब भी जंगल पर निर्भर है। मनातू की महिलाएँ हर सुबह एक ही प्रश्न के साथ दिन की शुरुआत करती हैं — “क्यापलामू के अन्य प्रखंडों की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। ये दृश्य आर्थिक असमानता की उस परत को उजागर करते हैं, जो केवल शहर और गाँव के बीच नहीं, बल्कि ग्रामीण समुदायों के भीतर भी मौजूद है।
यहाँ की महिलाएँ इस विषमता का चेतन प्रतीक हैं — उस भारत की याद दिलाती हुईं जहाँ विकास का प्रकाश अब भी दूरस्थ जंगलों तक नहीं पहुँचा है। आज पर्याप्त लकड़ी मिलेगी, और क्या इसकी कीमत परिवार का भोजन जुटाने के लिए काफी होगी?” जंगल उनके लिए केवल जीविका नहीं, बल्कि जोखिम में पड़ा निवेश भी है। वनों पर किसी प्रतिबंध या संसाधनों की कमी का सीधा असर उनके घर के चूल्हे पर पड़ सकता है।
अन्य चित्र

Women from Manatu block in Palamu carry bundles of firewood on their heads as they walk several kilometres to the local market.


