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आंकड़ों की बिसात पर पिता की विरासत और पुरानी अदावत, सोमेश के सामने बड़ी चुनौती

Sanjana Kumari
11 नवंबर 2025 को 03:04 am बजे
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Somesh Soren Faces a Tough Test in Ghatshila Bypoll: Balancing Legacy, Numbers, and Rivalries

घाटशिला की सियासत एक बार फिर गर्म है — लेकिन इस बार चुनावी शोर के साथ जुड़ा है भावनाओं और विरासत का भार। झामुमो के दिग्गज नेता रामदास सोरेन के निधन के बाद उनके पुत्र सोमेश सोरेन अब उन्हीं की सीट से भाजपा के बाबूलाल सोरेन के खिलाफ मैदान में हैं — वही प्रतिद्वंद्वी जिन्हें उनके पिता ने 2024 के विधानसभा चुनाव में मात दी थी।

वोटों का गणित और विरासत की कसौटी

पिछले चुनाव में रामदास सोरेन ने लगभग 98 हजार वोट हासिल किए थे, जबकि बाबूलाल सोरेन को 75 हजार वोट मिले थे। यह 22 हजार से अधिक मतों का अंतर अब झामुमो के आत्मविश्वास का आधार है, वहीं भाजपा के लिए इसे पाटना बड़ी चुनौती है।

चुनावी आंकड़े बताते हैं कि मुसाबनी और घाटशिला के शहरी व अर्ध-शहरी क्षेत्र झामुमो के गढ़ बने थे, जहां पार्टी को लगभग 55 से 60 प्रतिशत वोट मिले थे। वहीं डुमरिया और गुड़ाबांदा जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा को बढ़त मिली थी, परंतु मतदाताओं की संख्या कम होने से वह झामुमो की बढ़त को नहीं घटा पाई।

पुराने समीकरण, नए चेहरे

सोमेश सोरेन के सामने चुनौती है पिता की राजनीतिक पूंजी को बनाए रखते हुए अपनी पहचान बनाना। उन्हें सहानुभूति का लाभ तो मिल सकता है, पर विरासत का बोझ भी उतना ही भारी है। झामुमो की रणनीति शहरी क्षेत्रों में बढ़त बनाए रखने और ग्रामीण इलाकों में भाजपा के असर को कम करने की है।

वहीं बाबूलाल सोरेन के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा की लड़ाई है। उन्हें पिछली हार की भरपाई के लिए ग्रामीण वोट प्रतिशत बढ़ाने के साथ-साथ शहरी वोट बैंक में भी सेंध लगानी होगी।

जेएलकेएम के रामदास मुर्मू की मौजूदगी इस बार निर्णायक साबित हो सकती है, जो दोनों दलों के समीकरणों में उलटफेर कर सकते हैं।

घाटशिला उपचुनाव केवल मतों की जंग नहीं, बल्कि राजनीतिक विरासत और रणनीति की परीक्षा भी है — जहां यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या सहानुभूति का प्रवाह संगठन की ताकत पर भारी पड़ता है या नहीं।

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